Monday, June 18, 2012
दलाल+पीडी+कर्मचारी=खूनी कारोबार
खून की खरीद-फरोख्त के धंधे में निजी ब्लड बैंक के कर्मचारी, दलाल और प्रोफेशनल डोनर (पीडी) की तिकड़ी काम कर रही है। प्रबंधन ब्लड बैंक चलाने के लिए दलालों को प्रश्रय दे रहे हैं और दलाल प्रोफेशनल डोनर का नेटवर्क तैयार कर खून उपलब्ध करा रहे हैं। इस तिकड़ी ने शहर में रक्त का अवैध बाजार खड़ा कर दिया है। सूत्र बताते हैं कि अधिकतर निजी ब्लड बैंकों का काम प्रोफेशनल डोनर के बिना नहीं चलता। दलाल पीडी का नेटवर्क तैयार करते हैं और इन्हें ब्लड बैंक तक लाते हैं। पीडी चंद रूपयों के लालच में खून बेच देते हैं। लालच का रक्तदान रक्तदान के नियमों के मुताबिक कोई रक्तदाता एक बार रक्तदान करने के बाद तीन माह बाद ही अगला रक्तदान कर सकता है। पर पीडी के मामले में सेहत की हिफाजत के इस नियम को भी ब्लड बैंक व दलाल ताक पर रख देते हैं। ब्लड बैंक की जरूरत के कारण कई बार पीडी सप्ताह भर में या 15 दिन में ही दोबारा ब्लड दे देता है। ब्लड बैंक भी एचबी बढ़ाने के लिए पीडी को आयरन की गोलियां खिलाते रहते हैं। सेहत के लिहाज से यह खतरनाक प्रैक्टिस है। एक बार में ब्लड डोनर का अधिकतम 300 एमएल रक्त ही लिया जा सकता है, लेकिन ब्लड बैंक के धंधे का एक काला सच और भी सामने आया है। एक ब्लड बैंक के कर्मचारी ने बताया कि कई बार प्रोफेशनल डोनर की जानकारी के बिना 300 की जगह 500 एमएल तक ब्लड निकाल लिया जाता है। जांच का शॉर्टकट जब कोई डोनर ब्लड बैंक जाता है, तो उसके रक्त के नमूने के पांच टेस्ट होते हैं। इसमें एचआईवी, हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी, वीडीआरएल और मलेरिया की जांच शामिल हैं। सामान्य तौर पर इन जांचों की प्रक्रिया पूरी होने में तीन-चार घंटे लगते हैं। इससे पता चलता है कि रक्तदाता का ब्लड अन्य व्यक्ति को चढ़ाने लायक है या नहीं? पर कुछ निजी ब्लड बैंकों में शॉर्टकट अपनाया जाता है। इससे मरीज को संक्रमित ब्लड चढ़ने का खतरा बढ़ जाता है। आमतौर पर नशेड़ी, ऑटो चालक, पान वाले आदि पीडी के रूप में काम करते हैं। नशेड़ी पीडी या किसी बीमारी से ग्रस्त डोनर का ब्लड चढ़ जाए तो इससे मरीज को संक्रमण का खतरा हो सकता है। मरीज को बैठे-बिठाए कोई अन्य बीमारी हो सकती है। निचले कर्मचारी भी शामिल कुछ जगह अस्पताल और नर्सिüग होम में काम करने वाले गार्ड, निचले स्तर के कर्मचारी भी इस धंधे में शामिल होते हैं। भोपाल के सरकारी ब्लड बैंकों के आसपास भी इस तरह के दलालों की उपस्थिति बताई जाती है। निजी ब्लड बैंक के अलावा ये दलाल सरकारी अस्पतालों में भी घुसपैठ बनाने की कोशिश करते हैं। स्वैच्छिक रक्तदान की कमी के कारण इन तत्वों का धंधा चल रहा है। मोबाइल पर चलता है पूरा नेटवर्क ब्लड की खबर के साथ जोड़ खून के दलालों का नेटवर्क मोबाइल पर चलता है। दलाल सरकारी और प्रायवेट अस्पतालों के पार्किüग कर्मचारी, चपरासी, गार्ड, सफाईकर्मी, आसपास की चाय और पान की दुकान वालो से संबंध स्थापित करते हैं। इसके बाद इन्हें अपना मोबाइल नंबर दे देते हैं। साथ ही यह भी बताते हंै कि अगर किसी को ब्लड की जरूरत हो तो संपर्क कर लेना, इसके बदले सूचना देने वाले को कमीशन देने का प्रलोभन भी दिया जाता है। |
Monday, June 4, 2012
ग्रामीण विकास के रोड़े
वैसे तो भारत में ग्राम पंचायतों की अवधारणा सदियों पुरानी है, लेकिन आजादी के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाने की कोशिश की गई है। खासकर संविधान के 73वें संशोधन में पंचायतों को वित्तीय अधिकारों के अलावा ग्रामसभा के सशक्तिकरण की दिशा में अनेक योजनाएं बनीं। यही वजह है कि आज देश के लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित हो रहे हैं। वहीं केंद्र सरकार इन पंचायतों के विकास लिए अपने खजाने से सालाना अरबों रुपये आवंटित कर रही है ताकि गांवों का सही विकास हो सके, लेकिन इतनी धनराशि आने के बावजूद देश में गांवों की बदहाली दूर नहीं हो पा रही है। असल में ग्राम स्वराज और ग्राम्य विकास का जो सपना महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने देखा था वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। जिस तरह संसदीय लोकतंत्र में देश के सर्वोच्च प्रतीक संसद और विधानसभाओं का महत्व है उसी तरह ग्रामसभा लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई है। इसे सामान्य शब्दों में हम ग्राम संसद भी कहते हैं, लेकिन कमजोर अधिकारों के कारण ग्रामसभा उस तरह मजबूत नहीं हो पाई जैसी परिकल्पना राष्ट्रपिता और लोकनायक जयप्रकाश ने की थी। जिस तरह सांसद और विधायक करोड़ों रुपये की निधि का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं करते उसी तरह पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी कमोबेश उसी राह पर चल रहे हैं।
ग्राम स्वराज का असल मकसद तभी पूरा होगा जब गांवों की सत्ता में ग्रामीणों को उचित भागीदारी मिले और विकास से जुड़े तमाम फैसले लेने का अधिकार ग्राम सभा को हो। उदाहरण के तौर पर गांव में सड़कें कहां बनानी हैं, ग्रामसभा की जमीन का किस तरह व्यावसायिक इस्तेमाल हो, इसके अंतिम निर्णय का अधिकार कलेक्टर और बीडीओ को नहीं, बल्कि पंचायत के सरपंच और प्रधान को मिलना चाहिए। संविधान के 73वें संशोधन के बाद दिल्ली से जारी होने वाली धनराशि पंचायतों के विकास के लिए पहुंचती है। अमूमन हर पंचायत में पांच साल के दौरान लाखों रुपये मिलते हैं। अगर इन पैसों का सही जगह इस्तेमाल किया जाए तो देश के समस्त गांवों की तस्वीर बदल सकती है, लेकिन इस भ्रष्ट व्यवस्था में ऐसा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि पंचायतों को मिले रुपये कहां खर्च किए जाएं यह फैसला ग्रामीणों की सहमति के बगैर नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पंचायतों के प्रधान और सरपंच अपने चहते लोगों और अधिकारियों से साठगांठ कर उन योजनाओं को मंजूरी दिलाते हैं जिसमें बंपर कमीशन काटने की गुंजाइश होती है। यही वजह है कि देश के अधिकांश राज्यों में ग्रामसभा को निरंतर कमजोर करने की साजिश की जा रही है। इस मामले में बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है। राज्य के तकरीबन सभी गांवों में अक्षय ऊर्जा योजना के नाम पर ग्राम प्रधानों ने सौर बिजली लगाने की योजना बनाई।
बावजूद इसके बिहार के गांवों में अंधेरा अब भी कायम है, क्योंकि लगभग नब्बे फीसदी सोलर लाइटें खराब हो चुकी हैं। इस तरह बड़े पैमाने पर सोलर लाइटें लगाने की एकमात्र वजह थी मोटा कमीशन। अगर विकास योजनाएं ग्रामीणों की सहमति से बनाई जाए तो इस तरह की मनमानी और लूटपाट को रोका जा सकता है। गांवों का विकास ग्रामीणों की मर्जी से होना चाहिए ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि ग्रामसभा को अधिक से अधिक विकेंद्रीकृत किया जाए। अगर संभव हो तो उसे वार्ड सभा और टोला सभा में तब्दील किया जाए, क्योंकि जिस तरह गांव का प्रधान कुछ हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उसी तरह एक पंचायत में चुने जाने वाले दर्जनों पंचायत सदस्य और पंच भी सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाना ठीक नहीं। इस तरह के सौतेले बर्ताव से भला हम गांवों का सर्वागीण विकास कैसे कर पाएंगे? दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल इंपावरमेंट ऐंड रिसर्च जो ग्रामीण विकास के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के अभियानों से जुड़ी है। इस संस्था द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि पंचायतों के चुनाव में भी धनबल और बाहुबल का उपयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तरह होने लगा है। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव में सैकड़ों प्रत्याशी ऐसे थे जिनके पास करोड़ों की चल-अचल संपत्ति थी।
पंचायतों के चुनाव में मारामारी का आलम यह था कि ग्रामप्रधान और जिला पंचायत की एक सीट के लिए औसतन डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों ने नामजदगी के पर्चे भरे। सीएसईआर के अनुसार उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनाव में ग्रामप्रधान के उम्मीदवारों ने जहां पांच लाख से सात लाख रुपये खर्च किए वहीं जिला पंचायत के लिए उम्मीदवारों ने औसतन दस लाख से सोलह लाख रुपये पानी की तरह बहाए। लोकतंत्र की नर्सरी कहे जाने वाले ग्राम पंचायतों के चुनाव में धन की यह धार सकारात्मक संकेत नहीं है। इन सबके बावजूद ग्राम विकास की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं। निश्चित तौर पर बदलाव अचानक नहीं होता, लेकिन इसकी शुरुआत तो हो ही सकती है। उम्मीदों की ऐसी ही एक किरण कृष्ण नगरी मथुरा के मुखराई पंचायत में देखने को मिली। गोवर्धन तहसील से सटे इस पंचायत के प्रत्येक जनशिकायतों का समाधान ग्रामसभा की खुली बैठकों में ही किया जाता है। कुछ अरसे पहले यहां के ग्रामीण भी अन्य गांव वालों की तरह मानते थे कि गांव के विकास में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। यही वजह था कि यहां के लोग अपने प्रधान और जिला पंचायत के सदस्यों से उनकी कार्यशैली के बाबत कोई पूछताछ नहीं करते थे। गांव के मुखिया विकास की कौन-कौन सी योजनाएं संचालित करते हैं, ग्राम सभा की बैठकें नियमित क्यों नहीं होती हैं आदि बातों से उन्हें कोई सरोकार नहीं था।
हालांकि अब ऐसा नहीं है, क्योंकि मुखराई लोग ग्रामीण विकास को लेकर पूरी तरह सजग हो चुके हैं। यहां के कुछ लोग सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नित नई जानकारियां हासिल कर रहे हैं। मुखराई के लोगों का मुख्य पेशा कृषि और पशुपालन है। हालांकि कुछ समय पहले नीलगायों की वजह से यहां के किसान काफी त्रस्त थे। ग्रामीणों ने इस बाबत लिखित सूचना जिला प्रशासन को पूर्व में भी देते रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। नतीजतन यहां के लोगों ने इस समस्या को ग्राम सभा की खुली बैठकों में उठाया और उसके बाद यह मामला राज्य के शीर्ष अधिकारियों के पास पहुंचा। आपसी एकजुटता की वजह से यहां की ग्रामसभा आज पूरी तरह सशक्त बन चुकी है। इसे ग्रामीणों की चेतना का ही असर कहें कि मुखराई के ग्राम प्रधान अपने विकास कार्यो का लेखा-जोखा और एक-एक पैसे का हिसाब ग्राम सभा की बैठकों में देते हैं। बेशक देवभूमि मथुरा की मुखराई पंचायत देश भर के ग्राम सभाओं के लिए एक मिसाल है। अपनी मुखरता से मुखराई के लोग ग्रामीण विकास की दिशा में एक नई मिसाल कायम कर रहे हैं। |
धुंए की धीमी मौत के तथ्य
1- धूम्रपान (smoking) करते समय आप निकोटिन, पायरिडीन, अमोनिया, कार्बन मोनो ऑक्साइड, फ्यूरल, फर्माल्डिहाइड, एसीटोन, आर्सेनिक एसिड जैसे 4800 घातक रसायनों (lethal chemicals) को अपने फेफड़ों और खून मे भरते हैं जिनमें से 69 (International Agency For Research On Cancer के अनुसार 43) कैंसर के लिए सीधे उत्तरदायी हैं। |