Tuesday, November 13, 2012

8 Tips ताकि बेकार न जाए JOB इंटरव्यू

#  नौकरी को लेकर हिचकिचाहट का इजहार न करें। इंटरव्यू अपनी बात सख्ती से रखने का मंच नहीं है। आप वहां इंटरव्यू लेने वालों को राजी करने के लिए हैं कि आप ही इस नौकरी के लिए सबसे सही उम्मीदवार हैं। आपके हावभाव से ऊर्जा और उत्साह दिखना चाहिए। इंटरव्यू लेने वालों को यह बताना होगा कि आप इस नौकरी के लिए बेहद उत्साहित हैं और इसके लिए ज्यादा मेहनत भी करेंगे। आपको नौकरी को लेकर कोई शक है या फिर आप दूसरी जगहों पर भी इंटरव्यू दे रहे हैं तो इसका जिक्र न करें। जिन बातों का आप पर प्रभाव पड़ेगा उनके बारे में सवाल पूछ कर अपनी हिचकिचाहत दूर कर लें, लेकिन कभी भी ऐसा नहीं लगे कि आप इंटरव्यू लेने वाले से उसके लेवल पर बात कर रहे हैं।
 
#  अपनी बात को अच्छे से पेश करने और झूठ बोलने में थोड़ा फर्क है। यह बात अच्छी तरह समझ लें कि इस अंतर को आपको बहुत सावधानी से खत्म करना है। जिस फील्ड में आप नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं, उसका अनुभव आपके पास नहीं हैं, तो कोई ऐसा तरीका तलाशें, जिससे आप अपने अनुभव को उस नौकरी से जोड़ सकें। उदाहरण के लिए एक शख्स ने जब वकालत की पढ़ाई करने के बाद पब्लिक रिलेशन के क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया, तो उसने अपने बायोडाटा में स्टूडेंट क्लब में अपनी लीडरशिप वाली पोजीशन का जिक्र किया और उनसे मिली उन स्किल्स को भी रेखांकित किया, जिससे उसे पब्लिक रिलेशन के फील्ड में मदद मिलती। किसी भी मौके पर झूठ मत बोलिए। अगर आपको पास योग्यता, डिग्री या पहले कोई नौकरी नहीं थी तो इसके बारे में गलत जानकारी मत दें। इंटरव्यू लेने वाला आपसे ज्यादा अनुभवी होगा और वह जब इस बारे में आपसे सवाल पूछेगा तो आप कुछ बता नहीं पाएंगे। अगर आपका झूठ सामने आ गया तो आप मुश्किल में भी पड़ सकते हैं।

इंटरव्यू अपने लिए किसी खास चीज की मांग या कोई उपकार चाहने का वक्त नहीं होता। उस समय अपनी सीमाओं, आने वाली छुट्टियों या फिर किसी नकारात्मक बात का जिक्र न करें। आपको ऐसा दिखना चाहिए कि आप नौकरी को लेकर बेहद उत्साहित हैं और आपसे जो भी कहा जाएगा आप उस जिम्मेदारी को अच्छी तरह निभाएंगे। एक बार नौकरी आप को मिल जाए उसके बाद आप अपनी जरूरत की चीजों के लिए बात शुरू कर सकते हैं। यह कहने का मतलब यह नहीं कि आप झूठ बोल कर नौकरी हासिल करें। आपसे अगर सीधे-सीधे कोई ऐसा काम करने के बारे में पूछा जाए जो आप नहीं कर सकते तो इस बारे में ईमानदारी से जवाब दें। उदाहरण के लिए, अगर पूछा जाए कि आप संडे को ऑफिस में काम कर सकते हैं? और आप जानते हैं कि आर संडे को काम नहीं कर सकते तो ऐसा उन्हें बता दीजिए लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह विकल्प भी दे दीजिए कि आप ई-मेल पर उपलब्ध रहेंगे या फिर सप्ताहांत में देर तक रुककर काम कर सकते हैं।
 
# एप्लीकेशन भेजने के बाद कॉल न आए तो इसकी कई वजहें हो सकती हैं। अधिकतर ओपन पोजिशन के लिए संभावित उम्मीदवारों की तरफ से काफी बायोडाटा आते हैं। इसकी संभावना रहती है कि जिस व्यक्ति के पास बायोडाटा छांटने की जिम्मेदारी हो, उसके पास कई दूसरी जिम्मेदारियां भी हों। हो सकता है कि बायोडाटा खो जाए। ऐसे में आप मामले को अपने हाथ में लें और खुद इंटरव्यू लेने वाले को कॉल कर जानकारी प्राप्त करें। एप्लीकेशन के लिए दी गई गाइडलाइन्स में इसका जिक्र हो कि, 'कृपया फोन न करें', तब आप फॉलोअप ई-मेल भेज सकते हैं। आप हर 3-4 दिन पर फोन करके इस संबंध में हुई प्रगति की जानकारी ले सकते हैं। कोशिश करने से बात जरूर बन जाती है। 
 
#  आप समय के पाबंद हैं। यह एक अच्छी बात है, लेकिन क्या आपको पता है कि इंटरव्यू के लिए समय से बहुत पहले पहुंचना भी भारी भूल है? आपको तय समय पर बुलाने के पीछे कोई कारण होगा। संभव है इंटरव्यू लेने वाला तय समय से पहले किसी और काम में व्यस्त हो। आप समय से पहले पहुंचेंगे तो सामने वाले को आपसे मिलने के लिए अपना काम जल्दी-जल्दी निपटाना पड़े, ऐसे में हो सकता है कि उसका मूड आपका इंटरव्यू शुरू होने से पहले ही खराब हो जाए। इंटरव्यू के लिए तय समय के दस मिनट पहले तक पहुंचना ठीक हैं।
 
#  इंटरव्यू के दौरान आप सवाल को दूसरे तरह से शुरू करते हुए अपना जवाब दे सकते हैं।
'मुझे नहीं पता' या 'ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ।' अगर इंटरव्यू लेने वाले ने कोई ऐसा सवाल पूछ लिया, जो आप पर लागू नहीं होता, तो भी सवाल को सीधे-सीधे खारिज मत कीजिए। इसके बजाए यह सोचिए कि सवाल के पीछे उनकी मंशा क्या है। आप ऐसे अपना जवाब दे सकते हैं, 'मेरे साथ ऐसी घटना तो पहले नहीं हुई, लेकिन एक बार इसी से मिलता-जुलता वाकया जरूर हुआ था..।' या फिर 'अगर मेरे सामने ऐसी स्थिति आई तो मैं कुछ ऐसे इसे संभालूंगा..।'

#   अंत में जब इंटरव्यू लेने वाला आपसे पूछे कि आप कुछ पूछना चाहेंगे तो आप कोई सवाल पूछ सकते हैं। अगर आप कोई सवाल नहीं पूछते हैं, तो इससे यह संकेत जाएगा कि आप रुचि नहीं ले रहे हैं। अगर आपके पास सच में कोई सवाल नहीं है तो आप यह पूछ सकते हैं कि यहां अगर आपको नौकरी मिलती है तो दिन का शेड्यूल क्या होगा? जो भी पूछे वह इंट्रेस्टिंग होना चाहिए। यह दिखाइए कि आप इस क्षेत्र में काम करने की संभावना से उत्साहित हैं। आप चाहें तो तारीफ के एक-दो वाक्य से शुरुआत कर सकते हैं। आपको लगता है कि आपके सारे सवालों का जवाब मिल चुका है तो आप इस बात की तारीफ कर सकते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छे से इंटरव्यू लिया।
 
#  इंटरव्यू लेने वाले पर अपना प्रभाव डालने और उन्हें याद रहने के लिए इंटरव्यू के बाद फॉलोअप जरूर करें। आप इंटरव्यू लेने वाले को समय देने के लिए धन्यवाद का ई-मेल भेज सकते हैं। आप इसमें पोजिशन को लेकर उत्साह दिखा सकते हैं और इस बात के लिए कुछ दलील भी दे सकते हैं कि आप इस पद के लिए क्यों उपयुक्त रहेंगे। अगर इंटरव्यू के बाद आपको लगता है कि यह पद आपके लिए नहीं है तो भी आप इंटरव्यू लेने वाले को ई-मेल कर इस बात की जानकारी दे सकते हैं। वह अपना समय न बर्बाद करने और आपकी साफगोई और ईमानदारी के लिए आपकी तारीफ करेगा। अगर भविष्य में कभी आपकी उनसे मुलाकात हुई तो अच्छी वजहों से आप उन्हें याद रहेंगे। आप इंटरव्यू लेने वाले को थैंक्यू कार्ड भी भेज सकते हैं। आजकल इसका चलन लगभग न के बराबर होता है इसलिए आप कुछ अलग दिखेंगे। हां, इस मौलिक बात को मत भूलिए कि अच्छे कपड़े पहनें, गर्मजोशी से हाथ मिलाएं और अपने साथ बायोडाटा लेकर जाएं।

Thursday, October 18, 2012

गर गरीब ना होंगे तो राजनीति किसके नाम पर होगी?


भारत में गरीबी बढ़ने का एक अहम कारक जागरुकता का अभाव भी है. एक गरीब अपने अधिकारों के बारे में जानता ही नहीं जिसकी वजह से उसका शोषण होता है. अगर गरीब को पता हो कि उसे कहां से अपना राशन कार्ड, कहां से मनरेगा के लिए काम मिलेगा तो क्या वह गरीब अपनी गरीबी से लड़ नहीं सकता! पर उसकी इस समझ को भारत की राजनीति आगे बढ़ने ही नहीं देती.


भारतीय राजनीति का यह काला रूप ही है जो गरीबों को अशिक्षित और गरीब बनाए रखना चाहती है ताकि उसकी राजनीति चलती रहे वरना जिस दिन गरीब इंसान शिक्षित होकर गरीबी से उठ जाएगा उस दिन इन नेताओं को राजनीति करने का सबसे बड़ा और घातक अस्त्र हाथ से चला जाएगा. और जब गरीबी हटेगी और शिक्षा का स्तर बढ़ेगा तो उम्मीद है कुछ सच्चे और ईमानदार नेता राजनीति में आएं जो अपने क्षेत्र के विकास के लिए सच्चे मन से कार्य करें.


यदि हम दुनिया के दूसरे देशों की बात करें तो हमारे आसपास के देश भी सामाजिक क्षेत्र पर हमसे ज्यादा खर्च करते हैं.


गरीबों का मजाक

हाल ही में योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि शहरों में रहने वाले यदि 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग 26 रुपये प्रतिदिन खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा के दायरे में शामिल नहीं माने जाएंगे. अब आप इस रिपोर्ट को बकवास नहीं तो क्या कहेंगे? आप सोच कर देखिए जिस देश का योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वाले को गरीब ना मानें वहां गरीबी कैसे कम होगी?


भारत में आज एक अरब से अधिक आबादी प्रत्यक्ष गरीबी से जूझ रही है और ऐसे में भारत के भविष्य को संवारने का जिम्मा लेने वाला योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता.


अगर इस देश से गरीबी को हटाना है तो सबसे जरूरी है कि बड़े पैमाने पर गरीबों के बीच उनके अधिकारों की जागरुकता फैलाई जाए साथ ही राजनैतिक स्तर पर नैतिकता को मजबूत करना होगा जो उस गरीबी को देख सके जिसकी आग में छोटे बच्चों का भविष्य (जिन्हें देश के भावी भविष्य के रूप में देखा जाता है) तेज धूप में सड़कों पर भीख मांग कर कट रहा है.
 

अनाथ एवं जरूरतमंद बच्चो की मदद करे

कोई खाकर मरता है तो कोई बिना खाए

कैसी अजीब है यह दुनिया. यहां कोई बिना खाए भूख से मरता है तो कोई अधिक खाने से होने वाली बीमारी से मर जाता है. यहां गरीब हजारों कदम पैदल दो वक्त की रोटी कमाने के लिए चलता है तो वहीं अमीर अपने खाने को पचाने के लिए. रोटी ही इंसान की वह जरूरत है जिसके लिए वह जिंदगी भर अपना पसीना बहाता है लेकिन इस मेहनत के बाद भी बहुत कम लोगों को इस रोटी की जद्दोजहद से मुक्ति मिल पाती है. इनमें से कई जानें तो बिन रोटी के ही अपना दम तोड़ देती हैं.संसार में भोजन की कमी और भूख से प्रतिवर्ष करोड़ों जानें काल के गाल में समा जाती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में प्रति पांच व्यक्ति में एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है. इनकी संख्या वर्तमान में लगभग 72.7 करोड़ है. 1.2 करोड़ बच्चों में लगभग 55 प्रतिशत कुपोषित बच्चे मृत्यु के मुंह में चले जाते हैं. भूख और कुपोषण से मरने वाले देशों की सूची के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत को 88 देशों में 68वां स्थान मिला है.कुपोषण आज देश के लिए राष्ट्रीय शर्म है. भारत में कुपोषण की समस्या कुछ इलाकों में बहुत ज्यादा है. यही वजह है कि विश्व में कुपोषण से जितनी मौतें होती हैं, उनमें भारत का स्थान दूसरा है. वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनीतिक कारणों का परिणाम है. जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडा की प्राथमिकता में नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है. भारत को ही देख लें, जहां कुपोषण गरीब और कम विकसित पड़ोसियों मसलन बांग्लादेश और नेपाल से भी अधिक है. यहां तक कि यह उप-सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है, क्योंकि भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 प्रतिशत है, जबकि अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है.
लेकिन क्या सिर्फ कृषि उत्पाद बढ़ा कर और खाद्यान्न को बढ़ा कर हम भूख से अपनी लड़ाई को सही दिशा दे सकते हैं. चाहे विश्व के किसी कोने में इस सवाल का जवाब हां हो पर भारत में इस सवाल का जवाब ना है और इस ना की वजह है खाद्यान्नों को रखने के लिए जगह की कमी. यूं तो भारत विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर पिछले दशकों से बना हुआ है. लेकिन यह भी सच है कि यहां प्रतिवर्ष करोड़ों टन अनाज बर्बाद भी होता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 58,000 करोड़ रुपये का खाद्यान्न भंडारण आदि तकनीकी के अभाव में नष्ट हो जाता है. भूखी जनसंख्या इन खाद्यान्नों पर ताक लगाए बैठी रह जाती है. कुल उत्पादित खाद्य पदार्थो में केवल दो प्रतिशत ही संसाधित किया जा रहा है.

भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं. 
ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है. तमाम लोग दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसी जद्दोजहद में गरीब दम तक तोड़ देते हैं, जबकि सरकार के पास अनाज रखने को जगह नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने भूख से लड़ने के लिए कारगर उपाय नहीं किए हैं. देश में आज खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम 2006 के तहत खाद्य पदार्थो और शीतल पेय को सुरक्षित रखने के लिए विधेयक संसद से पारित हो चुका है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, नरेगा, मिड डे भोजन, काम के बदले अनाज, सार्वजानिक वितरण प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा नेट, अंत्योदय अन्न योजना आदि कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, ताकि सभी देशवासियों की भूख मिटाने के लिए ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से जीवनयापन के लिए रोजगार परक आय व पोषणयुक्त भोजन मिल सके. लेकिन कागजों पर बनने वाली यह योजनाएं जमीन पर कितनी अमल की जाती हैं इसका अंदाज आप भारत में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या से लगा सकते हैं.
भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है जब उत्पादन बढ़ाया जाए. साथ ही उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी समान रूप से नजर रखी जाए. खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है जब सभी लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके. साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी है. इसलिए कई मोर्चों पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा.

विश्व खाद्य दिवस


एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वह भूख से मर रहे हैं. कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है. दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है. गरीब देशों में इनकी बड़ी मात्रा खेतों के नजदीक ही बर्बाद हो जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार इस बर्बादी को आसानी से आधा किया जा सकता है. अगर ऐसा किया जा सके तो यह एक तरह से पैदावार में 15-25 फीसदी वृद्धि के बराबर होगी. अमीर देश भी अपने कुल खाद्यान्न उत्पादन का करीब आधा बर्बाद कर देते हैं लेकिन इनके तरीके जरा हटकर होते हैं.एक ओर दुनिया में हथियारों की होड़ चल रही है और अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं तो दूसरी ओर आज भी 85 करोड़ 50 लाख ऐसे बदनसीब पुरुष, महिलाएं और बच्चे हैं जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है लेकिन इसके बावजूद आज 85 करोड़ 50 से अधिक ऐसे लोग हैं जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं.


रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि 2015 तक हमें भूख से निपटना है और गरीबी से ग्रस्त लोगों की संख्या प्रथम सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से आधी करनी है तो हमें अपने प्रयासों को दोगुनी गति से आगे बढाना होगा.


खाद्यान्न की कमी ने विश्व के सर्वोच्च संगठनों और सरकारों को भी सोचने पर विवश कर दिया है. भारत में हाल ही में "खाद्य सुरक्षा बिल" लाया गया है लेकिन इस बिल का पास होना या ना होना इसकी सफलता नहीं है. हम सब जानते हैं भारत में खाद्यान्न की कमी को खास मुद्दा नहीं है बल्कि सार्वजनिक आपूर्ति प्रणाली और खाद्यान्न भंडारण की समस्या असली समस्या है. भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं.ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है.खाद्यान्न की इसी समस्या को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने विश्व खाद्य दिवस की घोषणा की थी. 16 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में विश्व खाद्य दिवस की शुरुआत हुई जो अब तक चली आ रही है. इसका मुख्य उद्देश्य दुनिया में भुखमरी खत्म करना है. आज भी विश्व में करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं. हमें विश्व से भुखमरी मिटाने के लिए अत्याधुनिक तरीके से खेती करनी होगी. इस साल खाद्य दिवस की थीम "खाद्य सामग्रियों की बढ़ती कीमतों को स्थिर" करना है.


बढ़ते पेट्रोल के दामों और जनसंख्या विस्फोट की वजह से आज खाद्य पदार्थों के भाव आसमान पर जा रहे हैं जिसे काबू करना किसी भी सरकार के बस में नहीं है. ऐसे में सही रणनीति और किसानों को प्रोत्साहन देने से ही हम खाद्यान्न की समस्या को दूर कर सकते हैं.


हमें समझना होगा कि भोजन का अधिकार आर्थिक,नैतिक और राजनीतिक रूप से ही अनिवार्य नहीं है बल्कि यह एक कानूनी दायित्व भी है.वर्तमान समय और परिस्थितियों में दुनिया के सभी देशों को सामुदायिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभावना को संगठित करना होगा.



 

कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश

एक सर्वे के मुताबिक मेट्रो शहरों की 70 फीसदी आबादी मोटापे की शिकार है। मेट्रो में रहने वाला मध्यम और उच्च वर्ग पढ़ा लिखा, जानकार है। हम सब जानते है कि मोटापा डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर, कोलेस्ट्राल, थायराइड समेत 50 से ज्यादा बीमारियों का वाहक है फिर भी हम इसे क्यों नहीं रोक पाते। यह भी सच है कि भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी युवा और देश का भविष्य इन्हींकंधों पर है। अगर भावी पीढ़ी बीमारियों के भंवर में जकड़ जाएगी तो हम भी वही रोना रोते नजर आएंगे जो आज अमेरिका और यूरोपीय देश रो रहे हैं। मोटापा और उससे जनित डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से वहां सामाजिक सुरक्षा का खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि सरकारें लाचार नजर आ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तमाम आंकड़ो के जरिए चेतावनी दी है कि यही हाल रहा तो भारत अगले 15 से 20 वर्षों में डायबिटीज, मोटापा और कैंसर के मरीजों की राजधानी में तब्दील हो जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर छह में से एक महिला और हर पांच में से एक पुरुष मोटापे का शिकार है। भारत में मोटापे के शिकार लोगों की संख्या सात करोड़ पार कर गई है। सबसे खतरनाक बात है कि 14-18 साल के 17 फीसदी बच्चे मोटापे से पीडि़त हैं। एक अध्ययन के मुताबिक बड़े शहरों में 21 से 30 फीसदी तक स्कूली बच्चों का वजन जरूरत से काफी ज्यादा है।


विशेषज्ञों के मुताबिक किशोरावस्था में ही मोटापे के शिकार बच्चे युवा होने तक कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है। यही वजह है कि आजकल 30 साल से कम उम्र के लोगों में भी हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से उभर रही हैं। यहींनहीं शहरों में रहने वाले हर पांच में एक शख्स डायबिटीज या हाइपरटेंशन का शिकार है। सभी प्रकार के संसाधनों से लैस होने के बावजूद शहरी मध्यवर्ग विलासिता और गलत खान-पान की आदतों से छुटकारा पाने में असफल रहा है। सवाल उठता है कि जो देश भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवकाल में महिलाओं की मौत की ऊंची दर से परेशान हो, क्या उसे उच्च वर्ग की विलासिता और भोगवादी संस्कृति से उपजी इन बीमारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाना चाहिए। दरअसल इन बीमारियों से लड़ने की हमारी नीति नकारात्मक और संकीर्ण है। विडंबना है कि सरकारें यह क्यों नहीं सोचतींकि कानून या योजना बनाने या उसके लिए बजट घोषित करने से सामाजिक समस्याओं का निदान नहीं हो सकता। इसमें सरकार, समाज और प्रभावितों को शामिल करना जरूरी है। मोटापा या जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए अस्पताल और अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराना जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक है कि इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ने से रोका जाए।या यूं कहें कि मोटापे से लड़ने के लिए हमें वैसे ही दृष्टिकोण की जरूरत आ पड़ी है जैसी कि हम तंबाकूयुक्त पदार्थो को लेकर करते हैं।


मोटापे को लेकर सरकार की नीति बेहद संकीर्ण और अव्यावहारिक है। मसलन निजी और सरकारी स्कूलों में फास्टफूड, उच्च कैलोरी युक्त पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहे हैं। स्कूली दिनचर्या में खेलकूद और शारीरिक शिक्षा किताबी पन्नों में सिमट कर रह गई है। मगर सरकारें असहाय हैं। बाजार बच्चों, युवाओं और बूढ़ों को भ्रामक विज्ञापनों से ललचा रहा है मगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय खामोश है। स्वस्थ रहने और बीमारियों से बचने की बातें पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। निजी-सरकारी क्षेत्र के स्कूलों, कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में लोगों के खानपान, कार्यशैली और स्थानीय पर्यावरण को लेकर सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर सर्वे और जागरूकता कार्यक्रम क्यों नहींचलाते। स्थानीय पर्यावरण मसलन वहां की हवा, पानी, खाद्य वस्तुएं लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर डालती हैं, इस पर शोध और विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की जहमत सरकार क्यों नहीं उठाया जाता। नौकरशाही तांगे के घोड़ों की तरह काम कर रही है जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और राजनीतिक नेतृत्व जितनी लगाम खींचता है बस वह उतने डग भरती है। बदकिस्मती से राजनेताओं का मकसद भी केवल गाड़ी खींचने तक सीमित रह गया है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि भारत और अन्य एशियाई देशों का पर्यावरण, लोगों की शारीरिक स्थिति एवं कार्यप्रणाली ऐसी है कि यहां मोटापा और उससे जनित जानलेवा बीमारियों यानी कैंसर, डायबिटीज, हृदयरोग के फैलने का खतरा ज्यादा है। मोटापा से होने वाली टाइप टू डायबिटीज से करीब सात करोड़ भारतीय परेशान हैं। इसलिए बच्चों, युवाओं के आसपास ऐसा माहौल विकसित करना जरूरी है कि वे ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों से दूर रहें कि वे मोटापा और अन्य बीमारियों का शिकार हों। हमारे नौनिहाल और युवा पीढ़ी अगर बीमारियों से घिरी रहेगी तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, देश के मानव संसाधन पर भी प्रभाव पड़ेगा।


सरकार अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ा हिस्सा विलासिता से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च करेगी तो भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवोपरांत महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए नियोजित बजट पर असर पड़ेगा। ऐसे में मोटापा और उससे होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए सकारात्मक और प्रोएक्टिव कदम उठाने होंगे। केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार और निजी क्षेत्र के स्कूलों, अस्पतालों, प्रतिष्ठानों और गैर सरकारी संगठनों को इस समग्र नीति का हिस्सेदार बनाना होगा। और हां प्रभावित होने वाले वर्ग यानी बच्चों और युवाओं को भी इस अभियान का भागीदार बनाना होगा, तभी कोई नीति सफल हो पाएगी। नकारात्मक उपायों के तौर पर फास्ट फूड और उच्च कैलोरी युक्त पेय पदार्थो की बिक्री को हतोत्साहित करना होगा। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थो पर ऐसे मानक तय करने होंगे जिससे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े। ऐसे जंक फूड और हाइड्रेटेड ड्रिंक की स्कूली परिसर के सौ मीटर के दायरे में बिक्री भी प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। स्कूल में आयोजित स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमों में बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए क्योंकि वे ही अपनी संतानों के खानपान और जीवनशैली के लिए जिम्मेदार होते हैं। इन खाद्य पदार्थो के पैकेट पर भी सामान्य चेतावनी लिखी जानी चाहिए, जिसमें इनके सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों का जिक्र हो ताकि दुकानदार अपने ग्राहकों को बहका न सकें और इसका नुकसान ज्यादा नहो सके। हमें बच्चों और युवाओं को यह समझाना होगा कि ये फास्टफूड और कैलोरीयुक्त पेय पदार्थ पश्चिमी वातावरण और स्थितियों के तो अनुकूल हैं मगर हमारे पर्यावरण के लिहाज से यह साइलेंट किलर की तरह हैं।

Monday, October 15, 2012

भू जल रिचार्ज


नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।


गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।


सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।


खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन

बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस

तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।


खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।


रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.


पानी की खातिर…

रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। 

 
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जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव
 

जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव

हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।


देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं। किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।


1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।


2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।


यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।


इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी।

 
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दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान
घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है।

सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं।

हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी।


 

Sunday, October 14, 2012

लड़कियों की आज़ादी या बर्बादी


लड़कियों की आज़ादी या बर्बादी
लड़कियों की आज़ादी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जो आज एक तपते हुए गर्म तवे का रूप धारण कर चुका है. और इस पर क्या समाज सेवी, क्या महिला आयोग, क्या राज नीतिक दल और क्या टूट पूंजिहे विचारक सभी अपने अपने अनेक तरह के आटे की रोटियाँ सेंकते चले जा रहे है. किताबी फिलास्फां के हवाई उड़ान में मजे से उड़ते हुए किसी को धरातलीय वास्तविकता की तरफ देखने की रूचि नहीं है. क्योकि यदि सतही सच्चाई की तरफ देखेगें तो यह एक सठियाई हुई पुरातन विचार धारा हो जायेगी.
क्या प्राचीन काल में बेटियों के आठ हाथ पैर होते थे? या क्या प्राचीन काल में लड़कियां सुन्दर नहीं होती थीं? क्या प्राचीन काल में रावण, दुशासन और हिरण्यकश्यप नहीं होते थे? या क्या प्राचीन काल के माता-पिता या अभिभावक अपनी बेटियों के शील, आचरण, इज्ज़त तथा मान मर्यादा के प्रति लापरवाह थे?
लड़कियों की आज़ादी को आज किस रूप में परिभाषित करने के लिए हो हल्ला हो रहा है? क्या पढ़ाई या शिक्षा दीक्षा की दिशा में उनकी आज़ादी छिनी जा रही है? क्या नौकरी के क्षत्र में उन्हें आज़ादी नहीं दी जा रही है? आज लड़कियों की आज़ादी का मतलब है उन्हें स्वच्छंद रूप से लड़को के साथ विचरण करने की आज़ादी. उन्हें लड़को के समान आचरण करने की आज़ादी.
क्या आधुनिक साजो सामान से सुसज्जित पार्टी में जाने की इजाज़त मिल जाने से उनकी गुलामी समाप्त हो जायेगी? क्या लड़को के साथ हंसी ठिठोली करने से लड़कियां आज़ाद कहलायेगीं?
लडके अपनी पार्टी करते है. उसमें वे एक दूसरे के साथ कैसी भाषा, इशारा, हरक़त आदि करते है. वे अपनी प्रकृति, बनावट, परिवेश एवं चर्या के अनुसार अपनी पार्टी मनाते है. क्या उनके साथ लड़कियों को पार्टी में शरीक होना तथा वही हरक़तें करना एवं करवाना ही आज़ादी है? आज कल की पार्टी में क्या होता है, इससे कौन परिचित नहीं है? क्या रात के अँधेरे में ही एक जवान लड़की की पार्टी परवान चढ़ती है?
क्या अँग प्रत्यंग को बखूबी दर्शाने वाले वस्त्र पहनने की इजाज़त लड़कियों को देना ही उनकी आज़ादी है? तो यदि वस्त्र पहनने का तात्पर्य अँग प्रदर्शन ही है तो फिर वस्त्रो की क्या आवश्यकता? निर्वस्त्र ही रहे. और ज्यादा अच्छी तरह से अंगो की नुमाईस हो जायेगी.
यदि पुरातन विचार धारा को छोड़ ही दिया जाय तो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ही लड़कियां लड़को के किन किन कामो की बराबरी करेगीं? कौन कौन से काम लड़कियां लड़को के समान करेगीं?
जब कभी कोई नदी अपनी सीमा तोड़ती है तो बाढ़ ही आती है. और सिवाय नुकसान के कुछ भी हाथ नहीं लगता. पेट खाना खाने के लिए होता है. वह कोई गोदाम नहीं है जिसमें कूड़ा कबाड़ भर दिए जाय. टोपी पैर में नहीं बल्कि सिर पर शोभा पाती है. सबकी अपनी सीमा होती है. लड़कियों को अपनी प्रकृति, स्वभाव तथा चर्या को ध्यान में रखते हुए स्वयं अपनी सीमा निर्धारित करनी चाहिए.
लड़कियों को उस क्षत्र में परचम लहराना चाहिए जिसमें उनकी प्रकृति उनका साथ दे.
लड़कियां सदैव लड़को से आगे रह सकती है. किन्तु अपने क्षेत्र में ही उन्हें आगे बढ़ना चाहिए. हम एक ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करते है.
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई कोई पार्टी रात के अँधेरे में अटेंड नहीं करती थी. उन्हें किसी कैबरे या पाश्चात्य नृत्य शैली का ज्ञान नहीं था. वह किसी पर पुरुष के साथ कमर में हाथ डाल कर "डांस" नहीं किया करती थी. लेकिन किसी मनचले या छिछोरे की हिम्मत नहीं थी जो उनकी तरफ बदनियति की नज़र डाल सके. और स्वतन्त्रता की लड़ाई में उन्होंने अंग्रेजो के छक्के छुडा दिए.
उनके ऊपर सख्त परम्परागत अनुशासन था. उनका आवास अन्तःपुर में ही होता था. उनके ब्वाय फ्रेंड नहीं हुआ करते थे. और तो और उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक़ अपना जीवन साथी भी चुनने की इजाज़त नहीं थी.
कारण यह था क़ि उन्हें अपने माता-पिता, अभिभावक पर भरोसा था. उन्हें ज्ञात था क़ि उनके माता पिता कभी भी उनकी बुराई नहीं चाहेगें. वह जो भी करेगें उसमें उनका सुख मय संसार ही होगा. आज लड़कियों को अपने मा बाप पर भरोसा नहीं रहा. उन्हें अपने जीवन साथी चुनने की स्वतन्त्रता चाहिए. मा बाप के अनुभव, विचार, भाव या सोच की कोई महत्ता नहीं है. उनके आदर्श एवं प्रतिबन्ध आज कल के लडके लड़कियों के लिए बेमानी है.
आज कल की लड़कियों को आज़ादी कुल खान दान की इज्ज़त, मान मर्यादा, शिक्षा, सदाचार एवं नैतिकता के उत्थान के क्षत्र में नहीं, बल्कि पार्टी, पिकनिक, ड्रेस एवं "फास्ट फ़ूड" के क्षत्र में चाहिए.
क्या लड़कियां लड़कियों को अपना फ्रेड नहीं बना सकतीं? क्या आवश्यक है क़ि लड़की का फ्रेड लड़का ही होगा?
ज़रा सच्चे मन से अपने दिल पर हाथ रख कर यह बताइये क़ि एक लड़की का फ्रेंड लड़का किस लिए होगा? शिक्षा के क्षेत्र में तो किसी सीमा तक मै मान सकता हूँ. हालाकि तार्किक रूप से यह भी मानने के योग्य नहीं है. क्योकि शिक्षा के भी क्षेत्र में लड़कियां लड़कियों से ही सहयोग लें तो अच्छा है. किन्तु इसके अलावा यदि कोई लड़की किसी लडके को फ्रेंड बनाती है तो किस उद्देश्य की पूर्ती के लिए? दिन की पार्टी में वह कौन सा मजा है जो नहीं मिलता है. और रात की पार्टी में मिलना शुरू हो जाता है?
अभिभावकों या माता पिता ने इस तरह के व्यवहार के लिए यदि अपनी लड़कियों को प्रतिबंधित किया था तो उसके पीछे क्या कारण था? क्या वे चाहते थे क़ि उसकी बेटी उन्नति या विकाश न करे? क्या कोई भी मा बाप यह चाहेगा क़ि उसकी बेटी का यश न बढे?
थोथे आदर्शो को छोड़ कर देखें. क्या लडके ही बलात्कार कर रहे है? क्या लड़कियां बलात्कार नहीं कर रही है? अंतर सिर्फ इतना है क़ि लडके सड़क पर बलात्कार कर रहे है. तथा लड़कियां बार, रेस्टुरेंट एवं मसाज़ पार्लर में बलात्कार कर रही है. उनका अच्छा खासा जीवन बर्बाद कर रही है.
यदि पानी अपनी नाली को ध्यान में रखते हुए बहे तो अपने गंतव्य तक पहुँच जाएगा. और जब उसे नाली के मेंड या नाली की सीमा का ध्यान नहीं रहेगा तो पानी तो इधर उधर बहेगा ही.
आज देखिये. लड़कियां लड़को के वस्त्र धारण कर अपने आप को ज्यादा "एडवांस" समझती है. लडके लड़कियों की तरह लम्बे बाल रख कर अपने आप को ज्यादा सभ्य समझते है. लड़कियां बाल लड़को की तरह कटवाकर अपने आप को ज्यादा पढी लिखी समझती है.
इन पुरातन सामजिक मान मर्यादाओं को धता बता कर तथा उन सीमाओं को तोड़ कर ही क्या सामाजिक उन्नति एवं समरसता या लड़कियों की आज़ादी को परवान चढ़ाया जा सकता है?
चाहे कितना भी हो हल्ला सरकार, समाज सुधारक एवं एवं दार्शनिक कर लें, एक लम्बे अनुभव के बाद स्थापित सामाजिक प्रतिबंधो, सीमाओं, एवं मर्यादाओं को लांघने के बाद समाज, सम्बन्ध, उन्नति एवं आदर्श सदाचार आदि की कल्पना कोरी कल्पना ही होगी. इससे और ज्यादा व्यभिचार, अनाचार, अत्याचार आदि को ही बढ़ावा मिलेगा.
यद्यपि मुझे यह अच्छी तरह ज्ञात है क़ि सबके मन में छिपे हुए ऐसे भाव है क़ि लड़कियों का ऐसा व्यवहार निम्न स्तरीय है. किन्तु थोथे सामजिक स्तर को बनाए रखने के लिए तथा कोई यह न कहे क़ि यह तो पुरातन पंथी है, सब के साथ सुर में सुर मिलाकर हल्ला कर रहे है क़ि लड़कियों के साथ अत्याचार हो रहा है. उनकी आज़ादी छिनी जा रही है. किन्तु जब डरे मन से अपनी लड़की की तरफ देखते है तो यह हो हल्ला गायब हो जाता है. फिर उन्हें नसीहत देना शुरू कर देते है. तथा पूछना शुरू कर देते है क़ि इतनी देर कहाँ थी? क्या कर रही थी? स्कूल छूटे तो इतना देर हो गया? फलाने लडके के साथ क्या कर रही थी?
लड़कियों को आज़ादी देने की तथा उन्हें लड़को की तरह समानता देने की बात करने वाले कौन ऐसे महाशय है जो अपनी जवान लड़की के साथ एक ही बिस्तर पर सोते है? जवान लडके के साथ तो बे हिचक सो सकते है. जवान लड़की के साथ सोने में क्यों हिचकते है? यदि लडके लड़की में में कोई अंतर नहीं है. दोनों को समान अवसर मिलना चाहिए. दोनों के प्रति समान दृष्टि रखनी चाहिए.
यह सब पाखण्ड भरी दार्शनिक बातें किताबो में ही अच्छी लगती है. या फिर चुनावी अखाड़ो में भाषण देने के लिए ही अच्छी लगती है. या फिर महिला आयोग एवं पुरुष आयोग नामक संस्थाओं की दूकान चलाने के लिए ही उपयुक्त है. वास्तविकता से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है.
लड़कियां यदि चाहे तो उनका स्तर लड़को से सदा ही ऊपर रह सकता है. वे आज भी पूज्या है. आज भी नवरात्री के अवसर पर उनके पैरो को धोकर तथा अपने घरो में उनके पैरो के जल को छिड़क कर पवित्र करने की प्रथा कायम रह सकती है. लेकिन यह उनके ऊपर निर्भर है क़ि वे जनक नंदिनी एवं श्री राम की भार्या के रूप में मर्यादित एवं सीमित होकर रावण के द्वारा हर लिए जाने के बाद भी उनकी तरह माता के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहती है या खुली आज़ादी पायी एवं स्वच्छंदता पूर्वक किसी भी पर पुरुष को "ब्वाय फ्रेंड" के रूप में स्वीकार करने वाली शूर्पनखा के रूप में तिरस्कार पाना चाहती है जिसने पहले राम को "प्रोपोज" कर फ्रेंड बनाना चाहा. असफल होने पर लक्षम्ण को 'प्रोपोज' कर "फ्रेंड" बनाना चाहा. और परिणाम स्वरुप अपनी नाक कटवानी पडा.
मै इसी जागरण मंच पर एक ब्लॉग पढ़ा हूँ जिसे श्री सतीश मित्तल जी ने लिखा है "जिसका काम उसी को साजे. और करे तो जूता बाजे" . क्या यहाँ सटीक नहीं बैठता? एक डाक्टर को दवाओं से ही मतलब रखना चाहिए. यदि वह कानून की धाराओं के चक्कर में पडेगा तो पूरा संविधान ही बदलना पडेगा. जैसा आज के क़ानून निर्मात्री सभा (संसद एवं विधान सभा) के सदस्य करते है. जिन्हें यह तक नहीं मालूम क़ि संविधान किसी पान की दूकान पर मिलाने वाला पान मसाला है या फसलो में डाली जाने वाली खाद.
लड़कियां यदि खुद सुरक्षित एवं सम्मानित रहना नहीं चाहेगी तो कोई दूसरा कुछ नहीं कर सकता सिवाय इसे सियासत की अपनी रोटी पकाने के. उन्हें माता-पिता, समाज एवं परम्परा को अंगीकार करना ही पडेगा. 'फ्रेंड" के बजाय 'ब्रदर" बनाना पडेगा. 'पार्टी" के बजाय 'पूजा' एवं धार्मिक कृत्यों में रूचि लेना होगा. "फंसी ड्रेस" के स्थान पर परम्परागत वस्त्र धारण करना पडेगा. और आचरण लड़को की तरह नहीं बल्कि लड़कियों की तरह करना होगा. केवल लड़को को दोष देने से '"आज़ादी" एवं उन्नति नहीं मिल सकती.