Sunday, May 27, 2012
रेव का रोग
| एक रेव पार्टी में सच्चाई यह है कि महानगरों के धनाढ्य तबकों तक सिमटे मौज-मस्ती के ऐसे आयोजन अब छोटे शहरों में भी अपने पांव पसारने लगे हैं। नशे में डूबे चरम मौज-मस्ती के लिए जाने जाने वाले इन आयोजनों में जैसा भोंडा प्रदर्शन होता है, वह किसी भी समाज और संस्कृति को अंधी खाई की ओर ले जाने वाला है। मादक पदार्थों के सेवन के बाद झूमते युवाओं की दुनिया रेव पार्टी के उस हॉल के भीतर सिमटी होती है, जहां उन्हें अपनी यौन ग्रंथियों के सार्वजनिक प्रदर्शन की भी खुली छूट होती है। दरअसल, हाल के वर्षों में समाज के एक तबके के बीच सार्वजनिक जीवन में पैसे के प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति पैदा हुई है, उसमें मनोरंजन का रास्ता इसी तरह के अतिवादी ठिकानों की ओर जाता है। ऐसी पार्टियों का आयोजन अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों या इंटरनेट पर 'फ्रेंडशिप क्लब' और 'दोस्त बनाएं' जैसे विज्ञापनों की आड़ में और गोपनीय मोबाइल संदेशों के जरिए किया जाता है। इसके आयोजक जरूरत से ज्यादा पैसे होने से उपजी नकारात्मक ग्रंथियों को भुनाने के मकसद से अपना धंधा चलाते हैं। उनके जाल में ऐसे युवा आसानी से फंस जाते हैं, जिनके पास पैसे की कमी नहीं होती और जिनके लिए नशे में तमाम वर्जनाओं को ताक पर रख देना ही मनोरंजन है। विडंबना है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ न कोई कार्रवाई हो पाती है न इन्हें छापने वाले समाचार माध्यम अपनी जिम्मेदारी समझ पा रहे हैं। अब तक जितनी जगहों पर पुलिस ने छापे मारे, वहां अश्लील हरकतों में लिप्त सौ से ज्यादा युवा पकड़े गए और भारी मात्रा में चरस, अफीम आदि नशीले पदार्थ बरामद हुए। जाहिर है, ऐसी पार्टियां मौज-मस्ती के नाम पर नशाखोरी, देह-व्यापार और दूसरी गैरकानूनी हरकतों के लिए जगह मुहैया कराती हैं। यह सही है कि पश्चिमी देशों से आयातित इस शौक का दायरा अभी समाज के एक छोटे तबके तक सीमित है, जिसके पास खूब पैसा है। वह अपना हर पल ऐसे माहौल में बिताना चाहता है जहां आर्थिक या सामाजिक, किसी भी तरह के प्रभुत्व से उपजी कुंठाओं के प्रदर्शन की खुली छूट हो। उसे व्यापक समाज या मानवीय संवेदनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। मगर चिंता की बात है कि अगर इसका दायरा फैलता है तो बाकी समाज भी इसके असर से अछूता नहीं रहेगा। समाज का एक तबका अपने मनोरंजन के लिए कोई खास तरीका अपनाता है तो इस पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर यह कोई सकारात्मक असर छोड़ने और व्यापक स्वीकार्यता के बजाय न सिर्फ नकारात्मक पहलुओं की बुनियाद पर खड़ा होता, बल्कि उसको बढ़ावा देता है तो निश्चित तौर पर यह किसी भी संवेदनशील समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। रेव पार्टियां इस कसौटी पर कहां हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनमें चोरी-छिपे शामिल होने वाले तमाम पक्ष खुद एक अपराधबोध से भरे रहते हैं। यह बेवजह नहीं है कि जब पुलिस छापों में लोग पकड़े जाते हैं तो बचाव के लिए उनके पास कोई दलील नहीं होती। ऐसे आयोजनों के ठिकाने प्रशासन की नजर से ओझल नहीं हैं। इससे विचित्र क्या होगा कि बड़े होटलों तक में इनका इंतजाम होने लगा है। अगर संजीदगी दिखाई जाए तो रेव पार्टियों के आयोजन पर लगाम कसना मुश्किल नहीं है। शिक्षा की मुश्किलें कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा का अधिकार कानून निजी स्कूलों पर भी लागू होता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को मानने के लिए उन्हीं स्कूलों को बाध्य किया जा सकता है जो सरकार के शिक्षा विभाग में पंजीकृत हैं। देश में बिना पंजीकरण के चलने वाले स्कूलों की तादाद इतनी बड़ी है कि कई राज्य सरकारों के लिए यह चिंता का विषय बनता जा रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केवल पंजाब में नौ हजार आठ सौ में से तीन हजार आठ सौ स्कूल बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। समझा जा सकता है कि इस तरह कितने सारे निजी स्कूल पंजीकरण की तकनीकी अनिवार्यता पूरी न करने का फायदा उठा रहे होंगे। इसलिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के सभी स्कूलों को अपने राज्य के शिक्षा विभाग में अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराने का निर्देश दिया है, ताकि वहां भी इस कानून पर अमल सुनिश्चित कराया जा सके। इसके तहत सभी स्कूलों के लिए राज्य के शिक्षा विभाग की ओर से तय की गई कसौटियों और शर्तों को पूरा करने के बाद पंजीकरण अनिवार्य बनाया गया है। कमी पाए जाने पर विभाग संबंधित स्कूल का पंजीकरण रद्द कर सकता है। दरअसल, जब से शिक्षा व्यवसाय का एक बेहतर माध्यम बन गई है, जहां-तहां स्कूल खुलने लगे हैं। इसमें बहुत सारे लोग स्कूल खोलने के लिए तय मानकों का पालन करना जरूरी नहीं समझते। यही वजह है कि बहुत सारे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, प्रयोगशाला, पुस्तकालय आदि के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। बहुत सारे स्कूलों के भवन तक आधे-अधूरे बने हैं। उनमें शिक्षकों की भर्ती वगैरह के मामले में भी तय मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता। ऐसे स्कूलों का इरादा पहले फीस से कमाई करने और फिर उससे जरूरी संसाधन जुटाने का होता है। जब यह स्थिति बड़े शहरों में बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो छोटे शहरों और कस्बों में क्या हालत होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है, ऐसे स्कूल पंजीकरण से बचने की कोशिश करते हैं। इसमें स्कूल खोलने संबंधी लचीले नियम-कायदों से भी उन्हें बल मिलता है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के ताजा आदेश का वे कितना पालन कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। जब से छह से चौदह साल के बच्चों के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ है, सबसे बड़ी उलझन इस बात को लेकर रही है कि निजी स्कूलों में इन नियम-कायदों को सहजता से कैसे अमल में लाया जाए। महज मुनाफे को अपना मकसद मानने वाले निजी स्कूल इस कानून के तहत पचीस फीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करने के प्रावधान से बचने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अदालत का भी सहारा लिया था। इस तरह केवल निजी स्कूलों में इन कानूनों पर अमल से समस्या का समाधान निकालना आसान नहीं है। हकीकत है कि देश भर में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं। जहां भर्तियां हो भी रही हैं, वहां प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय बहुत कम वेतन पर शिक्षा-मित्र या अप्रशिक्षित लोगों से काम चलाया जा रहा है। बहुत सारे स्कूल बिना भवन के चल रहे हैं। नए स्कूल खोलना कठिन बना हुआ है। स्कूलों में अगर बुनियादी ढांचे से लेकर शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात और शैक्षिक गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया, तो शिक्षा का अधिकार कानून महज औपचारिकता बन कर रह जाएगा। |
Saturday, May 26, 2012
प्रशंसा जरूर कीजिए, मगर...
प्रशंसा जरूर कीजिए, मगर...
अकेले पड़ते ईमानदार लोग
Friday, May 25, 2012
आधा पानी बर्बाद हो रहा है शहरों में
नई दिल्ली : सरकार ने माना है कि शहरी इलाकों में पाइपलाइन में लीकेज होने, पानी के अवैध कनेक्शन और चोरी आदि की घटनाओं से तकरीबन 50 परर्सेंट पानी की बर्बादी होती है। जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने गुरुवार को लोकसभा में कहा, कई स्टडीज से पता चलता है कि शहरी इलाकों में 30 से 50 पर्सेंट पानी की बर्बादी होती है। इसे नॉन रेवेन्यू वॉटर (एनआरडब्ल्यू) कहा जाता है। उन्होंने कहा कि 2008-09 के दौरान 28 शहरों में की गई पायलट स्टडी से पता चला कि औसत एनआरडब्ल्यू की मात्रा 39 पर्सेंट है। बंसल ने कहा कि शहरी विकास मंत्रालय ने जानकारी दी है कि पाइपलाइन में लीकेज और चोरी आदि की अन्य घटनाओं से पानी की बर्बादी होती है। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एक चरवाहे को कहीं से चमकीला पत्थर मिल गया। चमकीला पत्थर लेकर वह बाजार में गया। फुटपाथ पर बैठे दुकानदार ने वह पत्थर उससे आठ आने में खरीदना चाहा, परन्तु उसने उसे बेचा नहीं। आगे गया तो सब्जी बेचने वाले ने उसका मूल्य लगाया दो मूली। कपड़े की दुकान पर गया तो दुकानदार ने उसका दाम लगाया- थान भर कपड़ा। चरवाहे ने फिर भी नहीं बेचा, क्योंकि उसका मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा था। तभी एक व्यक्ति उसके पास आया और बोला, "पत्थर बेचोगे?" "बेचूंगा, सही दाम मिला तो?" "दाम बोलो" "हजार रूपए" "दिन में सपने देखते हो चमकीला है, तो क्या हुआ।" कहकर वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह जोहरी था। समझ गया कि चरवाहा पत्थर का मूल्य नहीं जानता। वह चला गया कि फिर आता हूं। उसके जाते ही एक दूसरा जोहरी आया। पत्थर को देखते ही उसकी आंखें खुल गई। दाम पूछा, तो चरवाहे ने बताया डेढ़ हजार रूपए। जोहरी ने डेढ़ हजार में हीरा खरीद लिया। अब पहले वाला जोहरी उसके पास आया और बोला, "कहां है तुम्हारा पत्थर?" चरवाहे ने कहा, वह तो बेच दिया। "कितने में?" "डेढ़ हजार रूपए में।" जोहरी बोला, "मूर्ख आदमी, वह हीरा था जो लाखों का था। तुमने कौड़ी के भाव बेच दिया। चरवाहा बोला, "मूर्ख मैं नहीं, तुम हो। वह तो मुझे भेड़ चराते हुए मुफ्त में मिला था। मैंने उसे डेढ़ हजार में बेच दिया । लेकिन तुमने उसका मूल्य जानते हुए भी घाटे का सौदा किया। मूर्ख तुम हो या मैं।" जोहरी के पास अब कोई जवाब न था। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 देखते ही देखते कसम से आदमी कितना बदल जाता है, इसका अनुमान हमें उनसे मिलने के बाद हुआ। वे हमारे बचपन के भायले थे। भायले भी क्या, जिगर के छल्ले थे। जवानी की बात है। वे हंसते थे तो मानो हरसिंगार के फूल झर रहे हों। वे चलते थे तो मानो एक मस्त अरबी घोड़ा चल रहा हो। वो नाचते थे तो मानो सारी कायनात को अपने संग नचा रहे हों। उस जमाने में जब आदमी की उम्र इश्क-हुस्न पर शेर कहने की होती थी, तब वे कहा करते थे, "देखते ही देखते दुनिया से उठ जाऊंगा मैं; देखती की देखती रह जाएगी दुनिया मुझे।" उनके मुंह से यह शेर सुनकर हम धक से रह जाते, क्योंकि भरी जवानी में दुनिया से उठने की बात कौन करता है। और सचमुच ऎसा ही हुआ। वे दुनिया से तो नहीं उठे, लेकिन दुनियादारी से उठ गए। दुनियादारी यानी यारबाजी, मस्ती, हंसना-हंसाना और वह सब, जो दुनिया के लिए जरूरी होती है। ऎसा नहीं कि उन्होंने ब्याह नहीं किया। ऎसा भी नहीं कि उन्होंने बाल- बच्चे पैदा न किए। ऎसा नहीं कि उन्होंने घर नहीं बनाया। उन्होंने इस जहान में वे सारे काम किए, जो एक इंसान करता है, पर बावजूद वे हमें दुनिया से उठे-उठे नजर आए। दुनिया से कटने और दुनिया से उठने में अन्तर है। दुनिया से कटने वाले संन्यासी कहलाते हैं और दुनिया से उठने वाले पैगम्बर। लेकिन हम हैरत में पड़ गए कि वे दुनिया से कटने और उठने के बावजूद न संन्यासी बने और न पैगम्बर। अभी एक दिन टकरा गए। हमने पूछा, कैसे हो? उन्होंने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया, तुम्हें कैसा लगता हूं? हमने कहा, "ठीक ही लग रहे हैं।" वे बोले, "तुम्हें क्या पता कि मैं ठीक हूं?" हमने कहा, "हमने तो अनुमान लगाया। बेटे-बेटी का ब्याह निपटा दिया। ठीक से नौकरी कर ली। रिटायरी अच्छी कट रही है। घर में कार है। अपनी मरजी के मालिक हो। और क्या चाहिए।" वे बोले, क्या सच वही है जो दिखलाई देता है। भ्रम भी तो सच हो सकता है। मैं बड़ा दुखी हूं। इतना दुखी कोई नहीं था। उनकी बातें सुन हमने कहा, "दुनिया में थोड़ा-थोड़ा दुखी तो सभी हैं। इसीलिए तो तथागत ने उस मृत पुत्र की मां से कहा था कि जाओ उस घर से एक मुटी सरसों ले आओ, जिस घर में कोई दुखी न हो।" वे बोले, मैं तो जन्म से ही दुखी हूं। हमने कहा, यह असंभव है। क्या आपके जीवन में कभी सुख नहीं आया। वे बोले, मेरा तो जन्म ही एक दुर्घटना है। उनका दार्शनिक अंदाज में कहा गया यह वाक्य सुनकर हमारी बोलती बंद हो गई। लेकिन मन ही मन हमने एक शेर कहा, "जो होनी थी वो बात हो ली कहारों, चलो ले चलो इनकी डोली कहारों।" 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लाखों की खदान, पर गरीब इंदौर/भोपाल। जिनके पास दो वक्त की रोटी का भरोसा नहीं है, वह लाखों की खदान के मालिक हैं। लाखों रूपए का खनिज उनकी खदान से निकलकर बाजार में बिक रहा है, लेकिन उनके आशियाने अब भी को मकान ही हैं। क्या यह संभव है कि लाखों की खदानों के मालिक की हालत ऎसी हो, लेकिन अपने प्रदेश में है। पन्ना जिले के दो मजदूर परिवार कागजों में खदानों के मालिक हैं, लेकिन खदानें दीगर लोगों के पास हैं और वे बिचौलिया बनकर खदान से निकले खनिज को कृषि राज्य मंत्री बृजेद्र प्रताप सिंह के परिजनों को बेच रहे है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह अपने प्रदेश में भी जनजातीय वर्ग, दलितो, पिछडों और गरीबो को भूखंड व खदानों के पटटे सिर्फ इसलिए दिए जाते है ताकि उनकी रेाजी-रेाटी का इंतजाम होने के साथ जीवन स्तर में कुछ सुधार आ सके, मगर सरकारेां की मंशा पूरी नहीं हो पा रही है। इसका उदाहरण है लखुआ अहिरवार व दयाराम। गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाले लखुआ व दयाराम के कोटमी बंडोरा में खदान के पटटे हैं, यह पटटे 10-10 वर्ष के लिए दिए गए है, मगर वे सिर्फ कागजी। ऎसा इसलिए क्योंकि इन दोनों की ही खदानों का संचालन कोई और कर रहा है। दयाराम की खदान को नत्थू सिंह व लुखआ की खदान का संचालन जितेंद्र सिंह कर रहा है। इन दोनों ने सादे कागज पर अनुबंध कर दयाराम व लखुआ से खदाने आठ हजार व नौ हजार रूपए वार्षिक पर अपने कब्जे में ले रखी है। अवैध खनन के दाग मंत्री के दामन पर लखुआ और दयाराम की खदानों से निकलने वाले खनिज को नत्थू सिंह व जितेंद्र सिंह राधिका टेडर्स को बेचते है। यह राधिका टेडर्स राज्य के कृषि राज्यमंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह के छोटे भाई लोकेंद्र प्रताप सिंह की पत्नी अंजू सिंह की है। नत्थू व जितेंद्र की अधिकृत फर्म नहीं है और न ही उसका पंजीयन है, फिर भी वह धडल्ले से गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले दयाराम व लखुआ की खदानों का खनिज बेचे जा रहे है। राधिका टैडर्स खरीदे गए खनिज को राज्य के बाहर भेजता है। जिम्मेदारों ने माना हो रही गड़बड़ी खदान की लीज किसी भी स्थिति में हस्तांतरित नहीं की जा सकती है, अगर कोई खदान चलाने की स्थिति में नहीं है तो उसे खदान सरकार को ही वापस करना होगी। किसी दूसरे को देना वैधानिक नही है। शैलेंद्र सिंह, खनिज सचिव भाई की पत्नी की कंपनी कृषि राज्यमंत्री बृजेद्र प्रताप सिंह से जब इस बारे में बातचीत की गई तो उन्होंने माना कि राधिका टेडर्स उनके भाई की पत्नी के नाम पर है और खनिज का करोबार किया जा रहा है। साथ ही वे बताते है कि राधिका टेडर्स खनिज की खरीदी नत्थू सिंह व जितेंद्र से करते है, इन दोनों की फर्म पंजीकृत नहीं है, लिहाजा ऎसी स्थिति में राधिका टेडर्स द्वारा दोनों से खरीदे गए खनिज पर एक प्रतिषत अतिरिक्त विRयकर का भुगतान किया जाता है। सिंह के मुताबिक ऎसा प्रावधान है कि गैर पंजीकृत संस्था से माल खरीदने पर एक प्रतिषत अतिरिक्त विRयकर जमा किया जाना चाहिए। इस नियम का पालन किया जा रहा है। सिंह स्वीकारते है कि राधिका टेडर्स सीधे तौर पर दयाराम व लखुआ से खनिज की खरीदी नहीं करता। उनके पास इस बात का कोई जवाब नही है कि राधिका टेडर्स के दस्तावेजों में विRेता के तौर पर नत्थू व जितेंद्र का नाम दर्ज न होकर दयाराम व लखुआ का ही दर्ज है। इतना ही नहीं खरीदे गए माल का भुगतान किस रूप में अर्थात नगद या चैके द्वारा होता है, इसका भी वे खुलासा नहीं कर पाए। |
2 रू. के लिए लड़की को जलाया आइसक्रीम के नाम पर जमा हुआ तेल खा रहे हैं आप
अनदेखी की बुनियाद
यह कैसा पढ़ाई का दबाव
युवाओं आत्महत्या नहीं है समाधान
अच्छाई और बुराई का बोझ
ऎसा भी प्रेम...
| एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा। बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया। प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता। कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते। एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था। बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया। फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला, "बहुत स्वादिष्ट! ऎसा फल कभी नहीं खाया। एक टुकड़ा और दे दें। दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। फकीर ने एक टुकड़ा और बादशाह से मांग लिया। इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए। जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो बादशाह ने कहा, "यह सीमा से बाहर है। आखिर मैं भी तो भूखा हूं। मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।" और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था। राजा बोला, "तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?" उस फकीर का उत्तर था, "जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं? सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पानी लाने के लिए एक और शादी कर ली! ठाणे।। एक आदमी को गांव में सूखे की वजह से तीसरी शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ा! शाहपुर तालुके के देंगलमल गांव में 65 साल के रामचंद्र (बदला हुआ नाम) ने बताया कि मेरी पहली पत्नी बीमार रहती है और 13 लोगों के परिवार के लिए पानी लाने दूर नहीं जा सकती, जबकि दूसरी पत्नी काफी कमजोर है। रामचंद्र के परिवार में 3 बेटे, उनकी पत्नियां और 3 पोते हैं। वह अपनी 3 बेटियों की शादी कर चुके हैं और वे अपनी ससुरालों में हैं। रामचंद्र ने बताया, 'मेरी पहली शादी 20 साल की उम्र में हुई थी। पहली पत्नी से 6 बच्चे हुए।' जब पहली पत्नी बीमार पड़ी तो रामचंद्र ने यह सोचकर दूसरी शादी की कि दूसरी पत्नी घर के काम देख लेगी। लेकिन, दूसरी पत्नी इतनी कमजोर थी कि वह घर के काम नहीं कर पाती थी। आखिरकार 10 साल पहले रामचंद्र ने तीसरी शादी की। रामचंद्र अपनी शादी के पक्ष में तर्क देते हुए बताते हैं कि उनके गांव में 6 महीने तक पानी की बहुत किल्लत थी। उन्हें बगल के गांव से पानी लाने के लिए डेढ़ किलोमीटर दूर जाना होता था और कई बार 3 किलोमीटर दूर भत्सा नदी तक भी। गांववालों ने पहले सोचा कि वह अपने शारीरिक सुख के लिए तीसरी शादी कर रहे हैं। गांव के हुसैन शेख बताते हैं, 'पहले हमने उनकी तीसरी शादी का विरोध किया, लेकिन बाद में हमें लगा कि वह ठीक कर रहे हैं। अब तीसरी पत्नी उनके घर के लिए पानी का इंतजाम कर लेती है।' अपनी बहू के साथ रोज पानी ढोने में 5 घंटे खर्च करने वाली 70 साल की साकरी शेंडे कहती हैं, 'ज्यादातर रामचंद्र की तीसरी पत्नी ही पानी ढोती है। जब वह बीमार पड़ती है, तब घर के बाकी लोग पानी ढोते हैं।' |
Thursday, May 17, 2012
बलात्कार का एक चेहरा यह भी
बलात्कार को किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं किया जा सकता, वस्तुतः दुनिया भर की औरतें बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों का शिकार होती हैं। बलात्कार अब शहरों की सीमाओं को लाघंकर गांव-कस्बों में भी पहुंच गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 'भारत देश में प्रतिदिन लगभग 50 मामले बलात्कार के थानों में पंजीकृत होते हैं।' इस प्रकार भारत भर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी अस्मत गंवा देती है। लेकिन आंकड़ों की कहानी पूरी सच्चाई ब्यां नहीं करती। हालांकि बलात्कार अधिकतर अनजाने लोगों द्वारा किया जाता है, लेकिन अब ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं जिनमें किसी परिचित द्वारा ही बलात्कार किया गया। इन परिचितों में सहपाठी, सहकर्मी, अधिकारी, शिक्षित और नियोक्ता अधिक होते हैं। ''विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, ''भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।'' वही महिलाओं के विकास के लिए केंद (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) द्वारा किए गए एक अध्ययन ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए वो चैकाने वाले थे। इसके अनुसार, ''भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।'' क्या यह पूरी सच्चाई ब्यां करती है कि बलात्कार के आंकड़ों से बलात्कारों की संख्या निर्धारित की जाए। शायद हम एक पक्ष की बात करते नजर आयेंगे, क्योंकि अगर बलात्कार की पृष्ठभूमि की बात करें तो हम स्वतः समझ जायेंगे कि आज के परिप्रेक्ष्य में बलात्कार हो रहा है या मात्र किसी दबाव या रंजिश के चलते इसको स्त्री समुदाय एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। शायद मेरी इस टिप्पणी से बहुत सारे लोग सहमत न हो पर, हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। अगर बलात्कार की खबरों पर चर्चा करें तो ऐसी बहुत सारी खबरें हमारे सामने से गुजरती है जिसको गले से उतारना मुश्किल लगता है। एक खबर, '28 साल के युवक ने 32 वर्ष की महिला को अपनी मोटर साइकिल में लिफ्ट दी, और फिर खेत में ले जाकर बलात्कार किया। एक और खबर, 20 साल के युवक ने 19 साल की लड़की को पुलिया के नीचे खीच कर बलात्कार किया। ऐसी तमाम खबरों से हम समाचारपत्र व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा रूबरू होते रहते हैं। इनमें कितनी सच्चाई है यह मैं और आप नहीं बल्कि वो दोनों ठीक तरह से बता सकते हैं। आज के परिपे्रक्ष्य में जिस तरह का माहौल हमारे बीच में तेजी से पनपा है उससे हम सब अंजान नहीं हैं कि किस तरह युवक और युवती दोनों में प्रेमालाप पनपता है और फिर एक समय सीमा के उपरांत यह प्रेम शारीरिक संबंधों में तबदील हो जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रेम के बाद इन लोगों के बीच संबंध बने ही, परंतु अधिकांश 10 में से 9 लोगों के बीच संबंध स्थापित हो ही जाते हैं, जो समाज की नजर से नहीं आते। इसे एक विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण कहें या फिर शरीर में आये हारमोन का बदलाव, सोचने वाली बात है। वहीं इस लुकाछिपी के खेल में कभी-कभार इनके संबंधों की जानकारी लड़की के परिजनों को पता चल जाती है तो सारी प्रेम कहानी एक सिरे से खारिज कर लड़की के परिवार वाले लड़की पर दबाव बनाकर लड़के पर बलात्कार का झूठा आरोप लगवा देते हैं। जिसकी सुनवाई हमेशा से ही लड़की के पक्ष में होती है। क्यांेकि लड़की को पीड़ित के दृष्टिकोण से देखा जाता है। बलात्कार का एक और चेहरा हमारे समाने परिलक्षित होता है जिसकी हकीकत से सभी बेखबर और पुलिस के नजरियें से इन खबरों को प्रकाशित करने वाले पत्रकार और समाज का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग इस तरह के प्रेमालाप को बलात्कार मान लेता है। मैं यह नहीं कर रहा हूं कि बलात्कार नहीं होते, बलात्कार होते हैं, नन्हीं बच्चियों के साथ, वृद्धाओं के साथ, सामूहिक लोगों द्वारा, अपनी हवस का शिकार इन लड़कियों को बना लेते हैं। जो कभी-कभी समाज के समाने आ जाती हैं और बहुत बार एक चार दीवारी में दम तोड़ देती हैं। फिर भी एक लड़का एक लड़की के साथ बलात्कार नहीं कर सकता जब तक उनकी सहमति न हो। इस बात को खारिज करने के लिए महिला समुदाय मेरे विपक्ष में खड़ी हो सकती हैं, इसके साथ-साथ शायद एक वर्ग मेरे भी पक्ष में खड़ा हो जो मेरी बात से सहमति रखता हो, कि बलात्कार का एक और चेहरा जो समाज के समाने नहीं आ पाता और उसे बलात्कार का नाम दे दिया जाता है। इस आलोच्य में कहा जाए तो बलात्कार के कानून में संशोधन की आवश्यकता महसूस होती है। कि बलात्कार की पूछताछ दोनों पक्षों से सख्ती से होनी चाहिए, यदि बलात्कार हुआ है और सारे सबूत बलात्कारी के विपक्ष में जाते है तो उसे सजा होनी चाहिए। जबकि पुलिस पूरे मामलें को एक पक्ष से न देखकर विभिन्न दृष्टिकोणों से इसकी जांच करें कि क्या इनके बीच कभी कोई प्यार जैसा संबंध या फिर किसी रंजिश के चलते तो ऐसा नहीं किया जा रहा है। इसकी गहनता से जांच होनी चाहिए। तब जाकर बलात्कार की हकीकत सबसे समाने आ सकेगी। |
तानाशाह और उनके अजीबो-गरीब कामकैलिग्यूला (ईसा बाद 12-41)रोमन सम्राट कैलिग्यूला इतिहास के पन्नों पर पहले तानाशाहों में गिने जाते हैं जो कि अपने भड़कीले व्यवहार और तुनक मिजाज़ी के लिए जाने जाते हैं. यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन में इतिहास पढ़ाने वाले वरिष्ठ व्याख्याता डॉक्टर बेनेट बताते हैं कि कैलिग्यूला ने एक बार आदेश दिया कि सारी नौंकाएं नेपल्स की खाड़ी में एक कतार में खड़ी हो जाएं ताकि वो उन पर चल कर एक एक शहर से दूसरे शहर जा सके. कैलिग्यूला को रेस के घोडे़ बेहद पंसद थे. कहा जाता है कि उन्होंने अपने प्रिय घोड़े के लिए अलग से घर बनवाया था, जिसमें उसकी सेवा के लिए सैनिक तैनात थे, साथ ही घोडे़ को सोने के मर्तबान में शराब पिलवाई जाती थी. यूनिवर्सिटी ऑफ एक्स्टर के प्रोफेसर पीटर वाइसमैन का मानना है कि कैलिग्यूला अच्छी तरह से जानता था कि वो क्या कर रहा है. उसने सार्वभौमिक सत्ता और ताकत के इस्तेमाल की सारी संभावनाओं को तलाशा. फ्रांसवा डूवलियर (1907-1971)फ्रांसवा डूवलियर का मानना था कि हर महीने की 22 तारीख को उनमें आत्माओं की ताकत आ जाती है. हैती के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांसवा डूवलियर ने अपने चौदह साल के शासनकाल में तमाम मौकों पर अपना महिमा मंडन किया. वो घोर अंधविश्वासी थे और उनका मानना था कि हर महीने की 22 तारीख को उनमें आत्माओं की ताकत आ जाती है. इसलिए वो हर महीने की 22 तारीख को ही अपने आवास से बाहर निकलते थे. उनका दावा था कि 22 नवंबर 1963 को उन्हीं की आत्माओं की शक्तियों की वजह से अमरीका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या हुई थी. छह बार उनकी हत्या के लिए प्रयास किये गए थे लेकिन वो हर बार बच निकले थे. वर्ष 1971 में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया. इदी अमीन (1920-2003)इदी अमीन ने खुद को फील्ड मार्शल, विक्टोरिया क्रॉस और मिलिट्री क्रॉस से भी सम्मानित किया. सत्तर के दशक में युगांडा के शासक रहे इदी आमीन ने अपने जीवन को भरपूर जिया. खुद को उन्होंने बार-बार सम्मानित किया और पदकों का अम्बार लगा लिया. उन्होंने खुद को फील्ड मार्शल, विक्टोरिया क्रॉस और मिलिट्री क्रॉस से भी सम्मानित किया. उन्हें अपने आप से इतने ज्यादा मोह था कि वो खुद को क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय के समकक्ष या उनसे बड़ा दिखाना चाहते थे. उनका कहना था कि राष्ट्रमंडल का प्रमुख उन्हें होना चाहिए न कि महारानी को. इस तरह की भी खबरें आती रहीं कि वो अपने राजनीतिक विरोधियों के कटे सर अपने फ्रिज में रखा करते थे. हालांकि ये कभी साबित नहीं हुआ. एक बार उन्होंने रात के भोजन की टेबल पर अपने सलाहकार से कहा था कि मैं तुम्हारा जिगर खाना चाहता हूं, मैं तुम्हारे बच्चों को भी खाना चाहता हूं. इदी अमीन की पांच पत्नियां और दर्जन भर बच्चे थे. सपरमूरत नियाजोव (1940-2006)नियाजोव ने अपनी 15 मीटर ऊंची सोने की प्रतिमा बनवाई. तुर्कमेनिस्तान के राष्ट्रपति नियाजोव खुद को एक ऐसे तानाशाह के रूप में पेश करते थे जैसे कोहन के काल्पनिक पात्र 'डिक्टेटर' का चरित्र है. उन्होंने अपनी 15 मीटर ऊंची सोने की परत चढ़ी प्रतिमा बनवाई थी जिसका मुख सूरज की तरफ था. हालांकि तुर्कमेनिस्तान की अधिकांश जनता गरीबी में जीवन जी रही थी, लेकिन नियाजोवने राजधानी में एक बर्फ का महल बनवाया और रेगिस्तान के बीचोबीच एक झील के निर्माण का आदेश दिया. उन्होंने अपने नाम पर शहर, पार्क बनवाए. यहां तक कि जनवरी महीने का नाम बदलकर उसका नामकरण अपने नाम पर कर दिया. वर्ष 1997 में धूम्रपान छोड़ने के बाद उन्होंने अपने सारे मंत्रियों को ऐसा ही करने को कहा था. उन्होंने नाटक, ओपेरा को तो प्रतिबंधित किया ही, साथ ही पुरुषों के लंबे बाल रखने पर प्रतिबंध लगा दिया. सद्दाम हुसैन की तरह ही उन्होंने एक किताब लिखी . रुखनामा तुर्कमेनिस्तान के इतिहास पर उनके विचारों का संग्रह है. स्कूल और विश्वविद्यालयों में इसे पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया गया. 2006 में उनका निधन हो गया और 2011 में उनकी स्वर्ण प्रतिमा भी हटा दी गई. किम जोंग इल (1942-2011)किम जोंग इल खुद को कोरिया का प्रिय पिता कहलाना पसंद करते थे उत्तरी कोरिया के किम जोंग इल आधुनिक युग के तानाशाह माने जाते हैं. वो खुद को कोरिया का प्रिय पिता यानी डियर फादर कहलाना पसंद करते थे. किम जोंग इल ने अपनी सत्ता और ताकत का महिमामंडन के लिए सरकारी मीडिया का इस्तेमाल किया. आधिकारिक बयान के मुताबिक जब किम जोंग इल का जन्म हुआ तो आकाश में दो इंद्रधनुष और एक चमकता सितारा दिखाई दिए. और उनकी मृत्यु पर बर्फ से ढकी एक विशाल झील के दो टुकड़े हो गए. |