Sunday, May 27, 2012

रेव का रोग

एक रेव पार्टी में सच्चाई यह है कि महानगरों के धनाढ्य तबकों तक सिमटे मौज-मस्ती के ऐसे आयोजन अब छोटे शहरों में भी अपने पांव पसारने लगे हैं। नशे में डूबे चरम मौज-मस्ती के लिए जाने जाने वाले इन आयोजनों में जैसा भोंडा प्रदर्शन होता है, वह किसी भी समाज और संस्कृति को अंधी खाई की ओर ले जाने वाला है। मादक पदार्थों के सेवन के बाद झूमते युवाओं की दुनिया रेव पार्टी के उस हॉल के भीतर सिमटी होती है, जहां उन्हें अपनी यौन ग्रंथियों के सार्वजनिक प्रदर्शन की भी खुली छूट होती है। दरअसल, हाल के वर्षों में समाज के एक तबके के बीच सार्वजनिक जीवन में पैसे के प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति पैदा हुई है, उसमें मनोरंजन का रास्ता इसी तरह के अतिवादी ठिकानों की ओर जाता है। ऐसी पार्टियों का आयोजन अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों या इंटरनेट पर 'फ्रेंडशिप क्लब' और 'दोस्त बनाएं' जैसे विज्ञापनों की आड़ में और गोपनीय मोबाइल संदेशों के जरिए किया जाता है। इसके आयोजक जरूरत से ज्यादा पैसे होने से उपजी नकारात्मक ग्रंथियों को भुनाने के मकसद से अपना धंधा चलाते हैं। उनके जाल में ऐसे युवा आसानी से फंस जाते हैं, जिनके पास पैसे की कमी नहीं होती और जिनके लिए नशे में तमाम वर्जनाओं को ताक पर रख देना ही मनोरंजन है। विडंबना है कि ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ न कोई कार्रवाई हो पाती है न इन्हें छापने वाले समाचार माध्यम अपनी जिम्मेदारी समझ पा रहे हैं। अब तक जितनी जगहों पर पुलिस  
ने छापे मारे, वहां अश्लील हरकतों में लिप्त सौ से ज्यादा युवा पकड़े गए और भारी मात्रा में चरस, अफीम आदि नशीले पदार्थ बरामद हुए। जाहिर है, ऐसी पार्टियां मौज-मस्ती के नाम पर नशाखोरी, देह-व्यापार और दूसरी गैरकानूनी हरकतों के लिए जगह मुहैया कराती हैं।
यह सही है कि पश्चिमी देशों से आयातित इस शौक का दायरा अभी समाज के एक छोटे तबके तक सीमित है, जिसके पास खूब पैसा है। वह अपना हर पल ऐसे माहौल में बिताना चाहता है जहां आर्थिक या सामाजिक, किसी भी तरह के प्रभुत्व से उपजी कुंठाओं के प्रदर्शन की खुली छूट हो। उसे व्यापक समाज या मानवीय संवेदनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। मगर चिंता की बात है कि अगर इसका दायरा फैलता है तो बाकी समाज भी इसके असर से अछूता नहीं रहेगा। समाज का एक तबका अपने मनोरंजन के लिए कोई खास तरीका अपनाता है तो इस पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर यह कोई सकारात्मक असर छोड़ने और व्यापक स्वीकार्यता के बजाय न सिर्फ नकारात्मक पहलुओं की बुनियाद पर खड़ा होता, बल्कि उसको बढ़ावा देता है तो निश्चित तौर पर यह किसी भी संवेदनशील समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। रेव पार्टियां इस कसौटी पर कहां हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनमें चोरी-छिपे शामिल होने वाले तमाम पक्ष खुद एक अपराधबोध से भरे रहते हैं। यह बेवजह नहीं है कि जब पुलिस छापों में लोग पकड़े जाते हैं तो बचाव के लिए उनके पास कोई दलील नहीं होती। ऐसे आयोजनों के ठिकाने प्रशासन की नजर से ओझल नहीं हैं। इससे विचित्र क्या होगा कि बड़े होटलों तक में इनका इंतजाम होने लगा है। अगर संजीदगी दिखाई जाए तो रेव पार्टियों के आयोजन पर लगाम कसना मुश्किल नहीं है।
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शिक्षा की मुश्किलें


कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा का अधिकार कानून निजी स्कूलों पर भी लागू होता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को मानने के लिए उन्हीं स्कूलों को बाध्य किया जा सकता है जो सरकार के शिक्षा विभाग में पंजीकृत हैं। देश में बिना पंजीकरण के चलने वाले स्कूलों की तादाद इतनी बड़ी है कि कई राज्य सरकारों के लिए यह चिंता का विषय बनता जा रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केवल पंजाब में नौ हजार आठ सौ में से तीन हजार आठ सौ स्कूल बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। समझा जा सकता है कि इस तरह कितने सारे निजी स्कूल पंजीकरण की तकनीकी अनिवार्यता पूरी न करने का फायदा उठा रहे होंगे। इसलिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के सभी स्कूलों को अपने राज्य के शिक्षा विभाग में अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराने का निर्देश दिया है, ताकि वहां भी इस कानून पर अमल सुनिश्चित कराया जा सके। इसके तहत सभी स्कूलों के लिए राज्य के शिक्षा विभाग की ओर से तय की गई कसौटियों और शर्तों को पूरा करने के बाद पंजीकरण अनिवार्य बनाया गया है। कमी पाए जाने पर विभाग संबंधित स्कूल का पंजीकरण रद्द कर सकता है।
दरअसल, जब से शिक्षा व्यवसाय का एक बेहतर माध्यम बन गई है, जहां-तहां स्कूल खुलने लगे हैं। इसमें बहुत सारे लोग स्कूल खोलने के लिए तय मानकों का पालन करना जरूरी नहीं समझते। यही वजह है कि बहुत सारे स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, प्रयोगशाला, पुस्तकालय आदि के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। बहुत सारे स्कूलों के भवन तक आधे-अधूरे बने हैं। उनमें शिक्षकों की भर्ती वगैरह के मामले में भी तय   मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता। ऐसे स्कूलों का इरादा पहले फीस से कमाई करने और फिर उससे जरूरी संसाधन जुटाने का होता है। जब यह स्थिति बड़े शहरों में बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो छोटे शहरों और कस्बों में क्या हालत होगी अंदाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है, ऐसे स्कूल पंजीकरण से बचने की कोशिश करते हैं। इसमें स्कूल खोलने संबंधी लचीले नियम-कायदों से भी उन्हें बल मिलता है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के ताजा आदेश का वे कितना पालन कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। जब से छह से चौदह साल के बच्चों के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ है, सबसे बड़ी उलझन इस बात को लेकर रही है कि निजी स्कूलों में इन नियम-कायदों को सहजता से कैसे अमल में लाया जाए। महज मुनाफे को अपना मकसद मानने वाले निजी स्कूल इस कानून के तहत पचीस फीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करने के प्रावधान से बचने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अदालत का भी सहारा लिया था। इस तरह केवल निजी स्कूलों में इन कानूनों पर अमल से समस्या का समाधान निकालना आसान नहीं है। हकीकत है कि देश भर में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं। जहां भर्तियां हो भी रही हैं, वहां प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय बहुत कम वेतन पर शिक्षा-मित्र या अप्रशिक्षित लोगों से काम चलाया जा रहा है। बहुत सारे स्कूल बिना भवन के चल रहे हैं। नए स्कूल खोलना कठिन बना हुआ है। स्कूलों में अगर बुनियादी ढांचे से लेकर शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात और शैक्षिक गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया, तो शिक्षा का अधिकार कानून महज औपचारिकता बन कर रह जाएगा।

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