Saturday, May 26, 2012

अकेले पड़ते ईमानदार लोग

अकेले पड़ते ईमानदार लोग
यह हो सकता है कि एस.पी. महांतेश नाम के अधिकारी के बारे में आपने नहीं सुना हो। कर्नाटक के चीफ जस्टिस के घर के सामने इस अधिकारी की धारदार हथियारों से हत्या कर दी गई। जब तक यह अधिकारी अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ता रहा कर्नाटक के मुख्यमंत्री जो उसी विभाग के मंत्री हैं, देखने तक नहीं गए। महांतेश कर्नाटक के कॉपरेटिव ऑडिट महानिदेशालय में उपनिदेशक थे। इनके आते ही कर्नाटक में ढेरों कॉपरेटिव घोटालों का पर्दाफाश होने लगा। कई बार मारने और डराने की कोशिशों के बाद भी महांतेश का इरादा कमजोर नहीं हुआ। अफसोस, अब यह अधिकारी हमारे बीच नहीं है, क्योंकि हमारे ईमानदार भविष्य के लिए लड़ते हुए मार दिया गया है। मुझे नहीं मालूम कि आप नीमच, शिवपुरी, बंगलूरू, कोलकाता, श्रीगंगानगर और अलवर में महांतेश के बारे में पढ़ते हुए क्या सोच रहे होंगे। शायद यही कि सिस्टम से कौन लड़े। कोई नहीं लड़ सकता। गनीमत है कि महांतेश ने हमारी तरह नहीं सोचा। हमारी सहानुभूति की भी परवाह नहीं की। अपनी और अपने परिवार की जिंदगी दांव पर लगाकर एक के बाद एक घोटाले का पर्दाफाश करते चले गए।

अप्रेल के महीने में दिल्ली में रवींदर बलवानी की हत्या हो गई। पुलिस दुर्घटना बताती रही है। परिवार के लोग हर दूसरे दिन हाथ में बैनर लिए खड़े रहते हैं कि आरटीआई कार्यकर्ता रवींदर बलवानी की हत्या हुई है। उनकी बेटियां समाज और सरकार से गुहार लगाती फिर रही हैं, लेकिन सौ-पांच सौ लोगों के अलावा किसी का कलेजा नहीं पसीजता। जुलाई 2010 में गुजरात हाई कोर्ट के करीब आरटीआई कार्यकर्ता अमित जेठवा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। ईमानदार अफसरों के सिस्टम से लड़ने और मारे जाने की घटनाएं मीडिया में जगह तो पा जाती हैं, मगर सरकारों पर असर नहीं पड़ता। ईमानदारी का बिगुल बजाने वाले अफसरों को सुरक्षा देने का कानून अटक-लटक कर ही चल रहा है। अगर हम अपने ईमानदार सिपाहियों के प्रति इतने ही सजग होते, तो एक मजबूत कानून बनने में दस साल न लगते। यही नहीं, अनेक सरकारी संस्थानों और निजी संस्थानों में भी ईमानदार लोगों को परेशान करने की खबरें आती रहती हैं।

संसद में व्हिसिल ब्लोअर विधेयक पड़ा हुआ है। इस बिल में सताने यानी उत्पीड़न को भी विस्तार से नहीं बताया गया है। गुमनाम शिकायत को स्वीकार न करने की बात कही गई है और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाले को पीडित करने वाले अफसरों के लिए दंड की कोई व्याख्या नहीं की गई है। इस कानून की खामियों पर कई बार चर्चा हो चुकी है। दरअसल किसी बिगुल बजाने वाले को सुरक्षा देने के लिए कानून का इंतजार करना भी ठीक नहीं है। 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून बनने से पहले भी सुरक्षा का प्रावधान होना चाहिए। इसके बाद भी महांतेश को कोई सुरक्षा नहीं दी गई।

क्या आप जानते हैं कि सत्येन्द्र दूबे ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में तीस हजार करोड़ रूपये के घोटाले की बात कही थी? क्या आपको पता है कि उन आरोपों का क्या हुआ? क्या सत्येन्द्र दूबे की मौत का इंसाफ सिर्फ इसी बात से मिल जाता है कि कुछ लोगों को आजीवन कैद की सजा दिला दी गई। हमारे सिस्टम ने ऎसा क्या किया, जिससे किसी सत्येन्द्र दूबे को जान जोखिम में डालने की नौबत ही न आए?

इतना ही नहीं, हमारा ध्यान ऎसे लड़ाकों पर तभी जाता है, जब वो मार दिए जाते हैं। मैं ऎसे कई लोगों को जानता हूं, जिन्होंने बैंक से लेकर कॉपरेटिव तक के बड़े घोटाले उजागर किए हैं, मगर उनके विभाग ने उन्हें तरह-तरह से प्रताडित कर मानसिक रूप से विक्षिप्त कर दिया है। आरटीआई ने बिगुल बजाने वालों को हथियार तो दे दिया, लेकिन कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया है। जो भ्रष्ट हैं, वो बुलेटप्रूफ जैकेट में चल रहे हैं और जो भ्रष्टाचार से लड़ रहे हैं, वो दिन दहाड़े मारे जा रहे हैं। अब मान लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार को लेकर समाज और सियासत का पक्का गठजोड़ हो गया है। जब तक इस गठजोड़ को नहीं तोड़ा जाएगा, महांतेश, मंजूनाथ, नरेन्द्र कुमार जैसे ईमानदार मारे जाते रहेंगे।

व्यवस्था से लड़ना किसी जंग से कम नहीं है। मध्य प्रदेश में ही लोकायुक्त के जरिये ढाई सौ करोड़ से अधिक की संपत्ति जब्त हो चुकी है। जिस स्तर के अधिकारी पकड़े गए हैं उससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार में व्यवस्था के कौन-कौन लोग शामिल हैं। एक सवाल खुद से कीजिए। क्या आपको पता नहीं कि यह सब हो रहा है? क्या आप अपने सामाजिक जीवन में ऎसे भ्रष्ट लोगों से नहीं मिलते हैं? आपकी सहनशीलता तब क्यों नहीं टूटती, जब ऎसे लोग सामने होते हैं? तब आप सवाल क्यों नहीं करते? सवाल करने का ढोंग तभी क्यों करते हैं, जब कोई ईमानदार मार दिया जाता है।

दरअसल हम ईमानदारों के इस जंग में ईमानदारी से शामिल नहीं हैं। यह कैसा समय और समाज है कि नरेन्द्र कुमार और महांतेश के मार दिए जाने के बाद कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं है। कोई चीत्कार नहीं है। राजनीति भी तो इसी समाज से आती है। तभी तो व्हिसिल ब्लोअर्स को सुरक्षा देने वाला विधेयक लोकसभा में पास हो जाने के बाद राज्य सभा में पेश होने का इंतजार ही कर रहा है। जल्दी न राजनीति को है न समाज को। हम अपनी पसंद के दल के भ्रष्टाचार से आंखें मूंद लेते हैं और विरोधी दलों पर सवाल उठाते हैं। अपना बचाकर दूसरे का दिखाने से सवाल का जवाब नहीं मिलता। हम आईपीएल जैसे तमाशे में पैसा खर्च करके भीड़ बन जाते हैं, मगर इन ईमानदार लोगों के लिए सड़कों पर नहीं निकलते। हमारे इसी दोहरेपन की दुधारी तलवार पर ईमानदार अफसरों की गर्दनें कट रही हैं।

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